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बुजुर्ग हमारी सभ्यता और संस्कृति की धरोहर एवं समाज का मेरुदंड हैं

बुजुर्ग हमारी सभ्यता और संस्कृति की धरोहर एवं समाज का मेरुदंड हैं

प्रकाश कुंज । उत्तर प्रदेश   डाॅ़ पाण्डे ने बताया कि बुजुर्ग हमारी सभ्यता और संस्कृति की धरोहर एवं समाज का मेरुदंड हैं। जिस देश में वसुधैव कुटुम्बकम की अवधारणा ने जन्म लिया, जहां की परिवार-परम्परा दुनिया के लिये आदर्श बनी है, वहां परिवार की परिभाषा सिमटती जा रही है। बुजुर्ग, उम्र बढ़ने से शारीरिक और

प्रकाश कुंज । उत्तर प्रदेश   डाॅ़ पाण्डे ने बताया कि बुजुर्ग हमारी सभ्यता और संस्कृति की धरोहर एवं समाज का मेरुदंड हैं। जिस देश में वसुधैव कुटुम्बकम की अवधारणा ने जन्म लिया, जहां की परिवार-परम्परा दुनिया के लिये आदर्श बनी है, वहां परिवार की परिभाषा सिमटती जा रही है। बुजुर्ग, उम्र बढ़ने से शारीरिक और भावनात्मक चुनौतियों के कारण अलग-थलग और अकेला महसूस करते हैं।

वृद्धाश्रमों में केवल निराश्रित एवं अभावग्रस्त वृद्धजन ही नहीं रह रहे हैं बल्कि उन लोगों की संख्या भी अधिक है, जिनके घर में अपने तो हैं, वैभव-सम्पन्नता भी है, किंतु वे उनसे विमुख हैं। परिवार में जिन बुजुर्गों को पेंशन मिलती है, उन्हें भी बोझ समझ लिया जाता है। उसी में एक विद्याधर मालवीय (परिवर्तित नाम) है जो एक अच्छी राशि पेंशन के रूप में अर्जित करते है। इनके नाती की बहू ने इन्हे तिरस्कृत कर बाहर कर दिया, तब इन्होंने इस सेवा कुंज को ही अपना घर मान लिया। अपनी पेंशन का बड़ा हिस्सा इन्ही पर खर्च करते हैं।

मालवीय ने बताया कि जिन बच्चों की खुशहाली के लिए लिए मां-बाप अपना सर्वस्व न्योछावर कर देते हैं वही बच्चे आवश्यकता पडने पर घर बाहर धकेल देते हैं। जब तक बच्चों में संयुक्त परिवार की प्रतिष्ठा और लाभ के साथ अच्छे संस्कार की शिक्षा नहीं दी जाएगी, परिणाम प्रतिकूल ही होंगे।

इसी प्रकार पुष्पा माता (75), सुखिया माता (99), विमला माता, सुमनलता (80) जैसी तमाम ऐसी माताएं यहां रह रही हैं जिनके बच्चों ने इनका सुख चैन छीनकर घर से बेघर दर-दर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ दिया और उनके लिए वृद्धाश्रम सहारा बना है। वे बुजुर्ग जो घर में हैं वह घर के एक कोने में तिरस्कार भरी जिंदगी को घुट-घुटकर जीने को मजबूर रहते हैं। आज संपत्ति की लालच में बेटी हो या बहू, बुजुर्गों को घर के बाहर बेबसी भरी जिंदगी जीने को मजबूर कर दिया है। उन बेबस बुजुर्ग मां-बाप को वृद्धाश्रम ही जीवन का सहारा बना है।

उन्होंने बताया कि यहां रहने वाले बुजुर्ग महिलाएं एवं पुरूष वे हैं जिनकी बहू और बेटियों ने उन्हें इस मोड़ पर छोड़ दिया, जब बढ़ती उम्र, शरीर और मन को सहारे की सबसे अधिक जरूरत होती है। वृद्धाश्रम उनके लिए सिर्फ एक छत नहीं, बल्कि ज़िंदगी की आखिरी पनाहगाह है। वृद्धाश्रम सिर्फ दीवारों से घिरा कोई भवन नहीं, बल्कि टूटी उम्मीदों, छूटे रिश्तों और बेसहारा ज़िंदगी के टुकड़ों को समेटे एक अलग दुनिया है। कोई आंगन में चुपचाप बैठा, किसी के हाथ में गीता थी, किसी के मन में यादें। न कोई उत्साह, न कोई शिकायत बस एक अजीब-सी स्वीकार्यता। जैसे ज़िंदगी से अब कोई सवाल नहीं बाकी है।

डाॅ़ पाण्डे ने बताया कि हम पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव में अपनी संस्कृति और विरासत में मिली धरोहरों को नष्ट कर रहे हैं। लोग बच्चों को अच्छी तालीम तो दे रहे हैं लेकिन अच्छे संस्कार नहीं। संयुक्त परिवार बिखर रहे हैं, जिसका प्रमुख कारण है अपनी संस्कृति को भूल पाश्चात्य संस्कृति की ओर अग्रसर होना है। संयुक्त परिवार हमारी भारतीय संस्कृति का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। यह बुजुर्गों को एक ऐसा माहौल देता है जहाँ वे अपने बच्चों और पोते-पोतियों के साथ समय बिता सकते हैं। इसके साथ ही, परिवार में कई सदस्य होने से उनकी देखभाल का जिम्मा भी साझा हो जाता है।

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